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फैली बाँहें / अजित कुमार

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फिर तुमने बाँहें फैला, आकाश तक
उड़ जाने की अभिलाषा मन में भरी,
फिर मैनें सोचा- शायद मैं पंख हूँ
जो आ जाता काम, न यदि तुम त्यागतीं।

त्यागे जाने पर तो अब असहाय हूँ।

काश । 'बाँह फैली' बन पातीं पंख ही :
वे, जो मुझे बांधने में असमर्थ थीं ।