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पानी / रघुवीर सहाय

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पानी का स्वरूप ही शीतल है

बाग में नल से फूटती उजली विपुल धार
कल-कल करता हुआ दूर-दूर तक जल
हरी में सीझता है
मिट्टी में रसता है
देखे से ताप हरता है मन का, दुख बिनसता है।