भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धूम / रमेशचन्द्र शाह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:19, 14 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेशचन्द्र शाह }} {{KKCatKavita}} <poem> बहुत दूर तक साथ चली थ…)
बहुत दूर तक साथ
चली थी
पर्वतमाला
बहुत दूर तक साथ
चला था जंगल अपने
फिर था वह सब बिला गया
सूने सन्नाटे में
..............
चलते- चलते
दीखा अचानक
सूखी एक सपाट नदी के
वक्षस्थल पर
गायों- भैंसों का हहराता
पूरा एक
हुजूम....
जैसे कोई सभा
वहाँ होने वाली हो
आने ही वाले हों कोई
महामहिम-हाँ
कोई
पशुपतिनाथ
इस तरह
मची हुई थी
धूम!!!
यात्रा कब की बीत चुकी
पर
बीत नहीं पाया वह दृश्य
अभी तक
सोते- जगते
कहीं कभी भी
हहराने लगता है मुझमें
अरे! वही का वही समूचा
पूरा एक हुजूम
मचने लगती मुझमें
वैसी की वैसी वह
गूंगेपन की
धूम!