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अध्याय १५ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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पञ्चदशोअध्याय

अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल,
शाखा नीचे जड़ ऊपर है.
हैं वेद पात , जो भेद गुनै,
वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है

अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों,
बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं,
नर योनी, करम विधान यथा ,
जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी

आद्यंत विहीना , ये वृक्ष घनयो,
जस होत कथित तस होत नहीं,
दृढ़ मूल अहंता की मोह जड़न
कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं

मानुष ढूंढ वही प्रभु ठौर जो ,
जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं,
ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन,
की सरनागति, भावै मही

जिन मोह व् मान भी शेष भयौ ,
अध्यातमन चाह विशेष भयौ.
सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ.
तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ

सूरज ना ही मयंक , अनल करै ,
कोऊ प्रकास , परम पद कौ,
जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ,
वही धाम परम पद अनहद कौ

यहि देह में देहिन अंश मेरौ,
त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ.
मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं,
एकमेव सनातन अंश मेरौ

यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि ,
जस वायु में गंध समावत है,
तस देहिन देह के भावन कौ ,
नव देह में हूँ लइ जावत है

यहि देहिन चक्षुन, श्रोत्र, त्वचा,
रसना मन प्राण सहारण सों,
यहि सेवत सगरे विषयन कौ ,
इन इन्द्रिन के आराधन सों

न काल प्रयाण , न जीवन में,
न विषयन कौ भोगत क्षण में,
न जाने मूढ़ कदापि कोऊ ,
लखि ज्ञान नयन सों हिय मन में