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चुप न रहो, कुछ कहो ( व्यथा- गीत ) / रवीन्द्र दास

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चुप न रहो , कुछ कहो

तुम्हें कुछ तो कहना है।

या लिखा भाग्य का मान सदा यूँ ही सहना है ?


कहने से तक़दीर बदलती है,

देखा है,

मुड़ जाती है वह जो

किस्मत की रेखा है

चुप-चुप घुट-घुट कर रहना

कोई रहना है!

चुप न रहो , कुछ कहो, तुम्हें जो कुछ कहना है।


बार-बार

औ' लगातार करना ही होगा

अपने जैसों की खातिर

मरना ही होगा

मौत सरीखे जीवन में

कबतक बहना है ?

चुप न रहो , कुछ कहो,

भला कुछ तो कहना है !


नजर उठाओ, देखो

दर्पण वहीं पड़ा है

जरा निगाहें डालो

कोई वहीं खड़ा है

मर्जी अपनी करो

मुझे ऐसे रहना है

चुप न रहो , कुछ कहो

तुम्हें सब कुछ कहना है।