भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक चादर–सी उजालों की / कमलेश भट्ट 'कमल'

Kavita Kosh से
Dr.jagdishvyom (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 17:41, 14 दिसम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: कमलेश भट्ट 'कमल'

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

एक चादर-सी उजालों की तनी होगी

रात जाएगी तो खुलकर रोशनी होगी।


सिर्फ वो साबुत बचेगी ज़लज़लों में भी

जो इमारत सच की ईंटों से बनी होगी।


आज तो केवल अमावस है‚ अँधेरा है

कल इसी छत पर खुली-सी चाँदनी होगी।


जैसे भी हालात हैं हमने बनाये हैं

हमको ही जीने सूरत खोजनी होगी।


बन्द रहता है वो खुद में इस तरह अक्सर

दोस्ती होगी न उससे दुश्मनी होगी।