आते-आते रह जाते हो--जाते-जाते दीख रहे,
आँखे लाल दिखाते जाते, चित्त लुभाते दीख रहे,
दीख रहे, पावनतर बनने की धुन के मतवाले-से,
दीख रहे, करुणा-मन्दिर-से प्यारे देश निकाले-से,
दोषी हूँ, क्या जीने का
अधिकार नहीं दोगे मुझको,
होने को बलिहार
पदों का प्यार नहीं दोगे मुझको?
रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९२३