भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिड़कियाँ खोल दी हैं / कुँअर रवीन्द्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:31, 13 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर रवीन्द्र }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मैंने खिड़कियाँ खोल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने खिड़कियाँ खोल दी हैं
खोल दिए सारे
रोशनदानों के पट

सारा घर रोशनी से भर गया
सुवासित हो गया तुम्हारी सुगंध से
दरवाज़े खोल देता हूँ

खिड़कियों से जो दिख रहे हैं
जंगल ,पहाड़, नदियों के दृश्य
शायद आ जाएँ भीतर

मै दरवाज़ों-खिड़कियों पर
पर्दे नहीं लटकाता
</poem