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प्रेम और सामूहिक दुःस्वप्न / आलोक श्रीवास्तव-२

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तुम भी उस गिरोह का हिस्सा थीं
जो हमारी बस्तियों में आग लगा रहा था
जला रहा था निर्ममता से
हमारी कच्ची नींद के सपने
उस सपने की नाजुक डोर पर ही पैर रखता
पता नहीं कैसे मैं आ निकला था एक दिन
तुम्हारी ओर....

तुमसे मैंने प्रेम किया
विचित्र रहे उसके अनुभव
मैं कहाँ था खुद
सिर्फ एक ऊंची कगार थी
और एक कठिन तिलिस्म...

इस धरती की कविता की तरह मैंने तुमको देखा
एक ख़ूबसूरत स्मृति की तरह रखा तुम्हें सहेजकर
एकांत में अबोध प्रार्थना की तरह
याद किया कितनी बार
तुम्हें चाहा
जीवन में अर्थ की तरह
अर्थ में दीप्ति की तरह देखा
तुम्हारा होना

कहाँ पता था तब
प्रेम अक्सर भ्रम भी साबित होता है
ज़रूरत और अभाव के बीच का अस्थिर टापू
जहाँ बस्तियाँ नहीं बसतीं
कहाँ पता था तब
ख़रीद-फ़रोख़्त की इस दुनिया में
सुंदरता का ठीक-ठीक वही अर्थ नहीं होता
जो दुनिया की महान किताबें हमें बताती हैं
जो फूलों के रंग और नदी की गति के साथ
हमारी चेतना की गहराईयों में उतर चुका होता है
जिसमें भोर के शब्द और गोधूलि का रंग खनकता है ...

कहाँ पता था तब
कि बहुत दूर छूट गये हमारे घरों के किवाड़
जर्जर हो चुके हैं
धूल हो चुके हैं बचपन के अबोध सपने
समय में कहीं दफ़न पड़ा है
पुरखों का भी प्रेम
उनकी प्रेमिकाओं की स्मृति मंडराती है
पुरानी कविताओं के लय-ताल में

कहाँ पता था तब
प्रेम न कर पाने और न पा सकने की पीड़ा का
कोई भयानक अर्थ भी होता है
जिसकी ओट में छुपे होते हैं
सामूहिक दुःस्वप्न

कहाँ पता था तब
तुम्हारे मन के भी परे तुम्हारा दिमाग है
जो मुक्त नहीं हो पाया गुलामी से अभी
फिर भला तुम कैसे अनुमान करतीं कि
दुखों की एक दुनिया बुन दी है तुमने किसी के चारों ओर
कभी पूरे न हो पाने वाले ख़्वाबों का एक अंतहीन सिलसिला ...

तुम भला क्यों जानोगी
उम्र भर कोई क्यों देखता रहा स्वप्न
एक उजड़े नगर में लौटने का
निरर्थक प्रतीक्षा में ख़त्म कर डाला एक पूरा जीवन
एक जीवन -
जिसका बहुत कुछ हो सकता था

कहाँ पता था मुझे तब
मेरी भाषा तुम्हारे लिये गै़र है
व्यर्थ हैं मेरी लड़ाईयां मेरे सपने
नहीं जानता था तब तुम्हारे जानने की सीमा
तुम्हारे सुख की परिधि पर ख़त्म होती है
और मेरे दुख से शुरु होता है मेरा संसार
देखा है कभी
एक ग़रीब देश के मामूली आदमी के दुख का संसार ?
फिर भला तुम क्यों जानोगी
दुख कैसे प्रेम बनता है और
प्रेम दुख

क्या जानती हो मुझे ?
मैं, जो एक दिन तुम्हारे वैभव पर रीझा
तुम्हारी हंसी, तुम्हारी खनक का वैभव
मैं रीझा तुम्हारी वसंत से धुली आंखों के विस्तार पर
जीवन को तेज कदमों से पार करती
तुम्हारी सुंदरता पर
जैसेक कोई चांद पर मोहित होता है
कोई चाहता है नदी की लहरों को हाथों में उठा लेना
वैसे ही मोहित हुआ तुम पर
तुम्हें चाहा
तुम्हारे जानने के परे है यह चाहत
तुम्हारे जानने के परे है यह दुख
और बहुत परे है यह हमारा जीवन
जिस पर सदियों की लूट तारी है अब भी !