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युग-पुरुष / माखनलाल चतुर्वेदी

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उठ-उठ तू, ओ तपी, तपोमय जग उज्ज्वल कर
गूँजे तेरी गिरा कोटि भवनों में घर-घर
गौरव का तू मुकुट पहिन
युग के कर-पल्लव
तेरा पौरुष जगे, राष्ट्र--
हो, उन्नत अभिनव।
तेरे कन्धों लहरावे, प्रतिभा की खेती,
तेरे हाथों चले नाव, जग-संकट खेती।
तुझ पर पागल बने आज उन्मत्त जमाना,
तेरे हाथों बुने सफलता ताना-बाना।


रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४