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गर्जन कर मानव-केशरि! / सुमित्रानंदन पंत
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गर्जन कर मानव-केशरि!
मर्म-स्पृह गर्जन,--
जग जावे जग में फिर से
सोया मानवपन!
काँप उठे मानस की अन्ध
गुहाओं का तम,
अक्षम क्षमताशील बनें
जावें दुबिधा, भ्रम!
रचनाकाल: मई’१९३५