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बाँसों का झुरमुट / सुमित्रानंदन पंत

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बाँसों का झुरमुट--
संध्या का झुटपुट
हैं चहक रहीं चिड़ियाँ
टी-वी-टी--टुट-टुट!
वे ढाल ढाल कर उर अपने
हैं बरसा रहीं मधुर सपने
श्रम-जर्जर विधुर चराचर पर,
गा गीत स्नेह-वेदना सने!
ये नाप रहे निज घर का मग
कुछ श्रमजीवी घर डगमग डग
भारी है जीवन! भारी पग!!
आः, गा-गा शत-शत सहृदय खग,
संध्या बिखरा निज स्वर्ण सुभग
औ’ गन्ध-पवन झल मन्द व्यजन
भर रहे नयाँ इनमें जीवन,
ढीली हैं जिनकी रग-रग!
--यह लौकिक औ’ प्राकृतिक कला,
यह काव्य अलौकिक सदा चला
आरहा--सृष्टि के साथ पला!
+ + + + + + + + + +
गा सके खगों-सा मेरा कवि
विश्री जग की सन्ध्या की छबि!
गा सके खगों-सा मेरा कवि
फिर हो प्रभात,--फिर आवे रवि!

रचनाकाल: अक्टूबर’१९३५