भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डर / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:21, 20 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह |संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज्ञानियों से लगता है डर
डर गुणी जनों से लगता है
अनुभवी जनों से लगता है डर।

ज्ञान, गुण, अनुभव के बिना
जिया गया जीवन निरर्थक नहीं है फिर भी।

डर का घर कि यह जीवन
ज्ञान, गुण, अनुभव के बिना भी
सार्थक है।

ज्ञानियों से डरने के लिए
डरने के लिए गुणी जनों से
अनुभवी जनों से डरने के लिए
ज्ञान, गुण, अनुभव से हीन जीवन ज़रूरी है।


रचनाकाल : 1991, विदिशा