अन्धेरा मन के भीतर था
उजाले की राह रोक कर खड़ा
अन्धेरे के खिलाफ़
क्या कर सकता था मैं
ख़ुद को जला देने के अलावा?
उजाला हतवाक
कि एक इन्सान जल रहा था
उसके पक्ष में खड़ा-खड़ा।
एक कवि
लिख रहा था
इस समूचे घटना-क्रम को
अपनी कविता में
इस तरह।
रचनाकाल : 1991, विदिशा