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दूर से आये थे साक़ी / नज़ीर अकबराबादी

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लेखक: नज़ीर अक़बराबादी

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दूर से आये थे साक़ी सुनके मयखाने को हम ।

बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।

मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं,

दिल में आता है लगा दें, आग मयखाने को हम ।

हमको फँसना था क़फ़स, क्या गिला सय्याद का,

बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम ।

ताके अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई,

अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुतखाने को हम ।

क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’

ताकि शादी-मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम ।