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पूर्वाभास / शलभ श्रीराम सिंह

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बुदबुदाहट के भीतर
एक-दूसरे से टकरा रहे थे शब्द

साँसों की बेरोक बग़ावत से
सहम गई थी हवा,

आँख न देख सकती थी
न कान सुन सकते थे कोई बात

दिल
पसलियों को तोड़कर
बाहर निकल आना चाहता था।

कल रात्रि के सन्नाटे में ऐसा था
वह महामिलन का पूर्वाभास


रचनाकाल : 1992