भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छा गए हैं आज फिर बादल घने / विनोद तिवारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:47, 29 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद तिवारी |संग्रह=दर्द बस्ती का / विनोद तिवार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


छा गए हैं आज फिर बादल घने
हो गए मज़दूर सारे अनमने

रास्तों के बीच हैं नदियाँ कई
और सारे पुल अभी हैं अधबने

नौकरी बेटे की पक्की हो गई
सेठ से क़र्ज़ा लिया फिर बाप ने

लोग पीछे से भी कर देते हैं वार
आँख है मजबूररहकर सामने

हाठ उन लोगों के निकले पाक साफ़
होंठ जिनके ख़ून से पाये सने

जश्ने आज़ादी पुलिस का इंतज़ाम
लोग देहातों से पहुँचे देखने