भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क़दम इंसान का राहे-दहर में / जोश मलीहाबादी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:47, 21 दिसम्बर 2006 का अवतरण
रचनाकार: जोश मलीहाबादी
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ ही जाता है
हवायेँ ज़ोर कितना ही लगायेँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसाँ की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है
समझती हैं म'अल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है