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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 2

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लेखक: रामधारी सिंह "दिनकर"

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''यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान .
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को ,
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को .''

''ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के ,
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के .
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी .''

''समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं ,
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं .
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं ,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं .''

समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ''प्रलाप यह बन्द करो ,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो .
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है ,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है .''

''क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है ,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है .
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो ,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो .''

पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ .
वोला ''विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया ,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया .

''जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन ,
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण .
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें ,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें .''

''पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा ,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा .
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है ,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है .''

कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय ,
बोला, ''रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय .
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं ,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं .''

यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया ,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया .
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास ,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश .

वोला, ''शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा ;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा .
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो ,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो .''

''अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा ,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा .''
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके ,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके .''

संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन ,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन .
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ ,
सब लगे पूछने, ''अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?''

पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द ;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द .
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार ,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार .

इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान ,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान .
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध ,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द .

है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण ,
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन .
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर ,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर .