भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चला जा रहा हूँ / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
पूजा जैन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:46, 17 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह |संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ…)
कल तक जो कुछ भी था
कहाँ है आज कुछ भी वैसा?
बेला के सफ़ेद फूल ने ले ली है
कल के सुर्ख़ गुलाब की जगह
ख़ुशबू तक में फ़र्क़ पड़ गया है।
तुम्हे, तुम्हारे वर्तमान के हवाले करता
होता हुआ अपने वर्तमान के हवाले
तुम्हारी अंजुरी में रखकर फूल
चला जा रहा हूँ मैं।
रचनाकाल : 1992, अयोध्या