मुझको छोड़ो मनमीत नहीं / प्रेम नारायण 'पंकिल'
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।
याचक निराश हो लौट जाय यह सच्चे प्रभु की रीति नहीं।
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।
स्वार्थी जगत या और देव पात्रता देख अपनाते हैं।
पर आप अनोखे नाथ कुपात्रों को भी गले लगाते हैं।
आपसी पिता-माता का नात है बालू की भीत नहीं।
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।1।।
क्या विरद विसार दिया अपना दर्शन साकार नहीं दोगे?
भवसागर में डूबता मुझे क्या कर-आधार नहीं दोगे?
होशा जासी में ही दुर्लभ नर-जीवन जाये बीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।2।।
ऐसे कुठाँव में फॅंसा, फिसलते निर्बल पाँव लगी काई।
घर का न घाट का श्वान, इधर पानी का कुआँ, उधर खाई।
मेरे दुर्दशा-लड़ाई क्यों लेते, करूणा से जीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।3।।
कर पकड़ो परमेश्वर देखो, कितनी सह रहा तबाही मैं।
मत बूँद-बूँद के हित तरसाकर मारो मरू का राही मैं।
सब पड़ा अधूरा क्यों कर देते, पूरा मेरा गीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।4।।
तेरी दयालुता है अगाध, मेरे अपराध डुबा दो तुम।
नीरस ‘पंकिल’ जीवन में निज, सुधि का मधुमास खिला दो तुम
लीला-गायन के सिवा और भायें कोई संगीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।5।।