भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ६

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:23, 26 जनवरी 2010 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ गये तब तक तपोव्रतनिष्ठ,
राजकुल के गुरु वरिष्ठ वसिष्ठ।
प्राप्त कर उनके पदों की ओट,
रो पड़े युग बन्धु उनमें लोट--
"क्या हुआ गुरुदेव, यह अनिवार्य?"
"वत्स, अनुपम लोक-शिक्षण-कार्य।
त्याग का संचय, प्रणय का पर्व,
सफल मेरा सूर्यकुलगुरु-गर्व!"
"किन्तु मुझ पर आज सारी सृष्टि,
कर रही मानों घृणा की वृष्टि।
देव, देखूँ मैं किधर, किस भाँति?"
"भरत, तुम आकुल न हो इस भाँति।
वत्स, देखो तुम पिता की ओर,
सत्य भी शव-सा अकम्प कठोर!
और उनका प्रेम-ओघ अभग्न,
वे स्वयं जिसमें हुए चिरमग्न!
और देखो भातृवर की ओर,
त्याग का जिसके न ओर, न छोर।
अतुल जिसकी पुण्य पितर-प्रीति--
स्वकुल-मर्यादा, विनय, नय-नीति।