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पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १

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पूज्य पिता के सहज सत्य पर
वार सुधाम, धरा, धन को,
चले राम, सीता भी उनके
पीछे चलीं गहन वन को।
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे,
कहा राम ने कि ‘‘तुम कहाँ ?’’
विनत वदन से उत्तर पाया—
‘‘तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।’’

सीता बोलीं कि ‘‘ये पिता की
आज्ञा से सब छोड़ चले,
पर देवर, तुम त्यागी बनकर,
क्यों घर से मुँह मोड़ चले ?’’
उत्तर मिला कि ‘‘आर्य्ये, बरबस
बना न दो मुझको त्यागी,
आर्य-चरण-सेवा में समझो
मुझको भी अपना भागी।।’’

‘‘क्या कर्तव्य यही है भाई ?’’
लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,
‘‘आर्य्य, आपके प्रति इन जन ने
कब कब क्या कर्तव्य किया ?’’
‘‘प्यार किया है तुमने केवल !’’
सीता यह कह मुसकाईं,
किन्तु राम की उज्जवल आँखें
सफल सीप-सी भर आईं।

चारु चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं हैं जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है,
अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रकट करती है धरती,
हरित तृणों की नोंकों से।
मानों झूम रहें हैं तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से।

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छ-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से,
कितने शांत और चुपचाप।

है बिखेर देती वसुंधरा
मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सवेरा होने पर।
और विराम-दायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य-श्याम तनु जिससे उसका
नया रूप छलकाता है।

पंचवटी की छाया में है,
सुन्दर पर्ण कुटीर बना।
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर,
धीर वीर निर्भीक मना।
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
जब कि भुवन भर सोता है।
भोगी कुसुमायुध योगी सा,
बना दृष्टिगत होता है।

किस व्रत में है व्रती वीर यह,
निद्रा का यों त्याग किये।
राज्यभोग के योग्य विपिन में,
बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका,
उस कुटीर में क्या धन है।
जिसकी रक्षा में रत इसका,
तन है, मन है, जीवन है।

मृत्युलोक मालिन्य मेटने,
स्वामि संग जो आयी हैं।
तीन लोक की लक्ष्मी ने,
यह कुटी आज अपनाई है।


और आर्य को राज्य भर को,
वे प्रजार्थ ही धारेंगें।
व्यस्त रहेंगें हम सब को भी,
मानो विवश विसारेंगें।
कर विचार लोकोपकार का,
हमें न इससे होगा शोक।
पर अपना हित आप नहीं क्या,
कर सकता है यह नरलोक।