भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 1

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:44, 29 दिसम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: मैथिलीशरण गुप्त

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

सुफल - दायिनी रहें राम-कर्षक की सीता;

आर्य-जनों की सुरुचि-सभ्यता-सिद्धि पुनिता।

फली धर्म-कृषि, जुती भर्म-भू शंका जिनसे,

वही एग हैं मिटे स्वजीवन – लंका जिनसे।

वे आप अहिंसा रूपिणी परम पुण्य की पूर्ति-सी,

अंकित हों अन्तःक्षेत्र में मर्यादा की मूर्ति-सी।


बुरे काम का कभी भला परिणाम न होगा,

पापी जन के लिए कहीं विश्राम न होगा।

अविचारी का काल भाल पर ही फिरता है,

कहीं सँभलता नहीं शील से जो गिरता है।

होते हैं कारण आप ही अविवेकी निज नाश में,

फँसते हैं कीचक सम स्वयं मनुजाधम यम-पाश में।


जब विराट के यहाँ वीर पाण्डव रहते थे,

छिपे हुए अज्ञात – वास – बाधा सहते थे।

एक बार तब देख द्रौपदी की शोभा अति –

उस पर मोहित हुआ नीच कीचक सेनापति।

यों प्रकट हुई उसकी दशा दृग्गोचर कर रूपवर,

होता अधीर ग्रीष्मार्त्त गज ज्यों पुष्करिणी देखकर।


यद्यपि दासी बनी, वस्त्र पहने साधारण,

मलिनवेश द्रौपदी किए रहती थी धारण।

वसन-वह्नि-सी तदपि छिपी रह सकी न शोभा,

उस दर्शक का चित्र और भी उस पर लोभा।

अति लिपटी भी शैवाल में कमल-कली है सोहती,

घन-सघन-घटा में भी घिरी चन्द्रकला मन मोहती।


छिपी हुई भी प्रकट रही मानो पांचाली,

छिप सकती थी कहाँ कान्ति कला निराली ?

वह अंगों की गठन और अनुपम अलकाली,

जा सकती थी कहाँ चाल उसकी मतवाली ?

काली काली आँखें बड़ी कानों से थीं लग रहीं,

गुण और रूप की ज्योतियाँ स्वाभाविक थीं जग रहीं।


सतियाँ पति के लिए सभी कुछ कर सकती हैं,

और अधिक क्या, मोद मान कर मर सकती हैं ।

नृप विराट की विदित सुदेष्णा थी जो रानी,

दासी उसकी बनी द्रौपदी परम सयानी ।

थी किन्तु देखने में स्वयं रानी की रानी वही,-

कीचक की, जिसको देख कर सुध-बुध सब जाती रही।


कीचक मूढ़, मदान्ध और अति अन्यायी था,

नृप का साला तथा सुदेष्णा का भाई था।

भट-मानी वह मत्स्यराज का था सेनानी,

गर्व-सहित था सदा किया करता मनमानी।

रहते थे स्वयं विराट भी उससे सदा सशंक-से,

कह सकते थे न विरुद्ध कुछ अधिकारी आतंक से।


तृप्त होकर रम्य रूप-रस की तृष्णा से,

बोला वह दुर्वृत्त एक दिन यों कृष्णा से –

“सैरन्ध्री, किस भाग्यशील की भार्या है तू ?

है तो दासी किन्तु गुणों से आर्या है तू !

मारा है स्मर ने शर मुझे तेरे इस भ्रू-चाप से !

अब कब तक तड़पूँगा भला विरह-जन्य सन्ताप से ?”


उसके ऐसे वचन श्रवण कर राजसदन में,

कृष्णा जलने लगी रोष से अपने मन में।

किन्तु समय को देख किसी विध धीरज धर के,

उससे कहने लगी शान्ति से शिक्षा कर के।

होता आवेश विशेष है यद्यपि मनोविकार में,

समयानुसार ही कार्य करते हैं संसार में।


सावधान हे वीर, न ऐसे वचन कहो तुम,

मन को रोको और संयमी बने रहो तुम।

है मेरा भी धर्म, उसे क्या खो सकती हूँ ?

अबला हूँ, मैं किन्तु न कुलटा हो सकती हूँ।

मां दीना हीना हूँ सही, किन्तु लोभ-लीना नहीं,

करके कुकर्म संसार में मुझको है जीना नहीं।


पर-नारी पर दृष्टि डालना योग्य नहीं है,

और किसी का भाग्य किसी को भोग्य नहीं है।

तुमको ऐसा उचित नहीं, यह निश्चय जानो,

निन्द्य कर्म से डरो, धर्म का भी भय मानो।

हैं देख रहे ऊपर अमर नीचे नर क्या कर रहे,

दुष्कृत में सुख है तो सुजन सुकृतों पर क्यों मर रहे ?


मेरे पति हैं पाँच देव अज्ञात निवासी,

तन-मन-धन से सदा उन्हीं की हूँ मैं दासी।

बड़े भाग्य से मिले मुझे ऐसे स्वामी हैं,

धर्म-रूप वे सदा धर्म के अनुगामी हैं।

इसलिए न छेड़ो तुम मुझे, सह न सकेंगे वे इसे,

श्रुत भीम पराक्रम-शील वे मार नहीं सकते किसे ?"


कीचक हँसने लगा और फिर उससे बोला –

"सैरन्ध्री, तेरा स्वभाव है सचमुच भोला।

तुझसे बढ़कर और पुण्य का फल क्या होगा,

जा सकता है यहीं स्वर्ग-सुख तुझसे भोगा।

भय रहने दे जय बोल तू, मेरा कीचक नाम है।

तेरे प्रभु-पंचक से मुझे चिन्त्य पंचशर काम है।


मैं तेरा हो चुका, तू न होगी क्या मेरी ?

पथ-प्रतीक्षा किया करूँगा कब तक तेरी ?

आज रात में दीप-शिखा-सी तू आ जाना,

दृष्टि-दान कर प्राण-दान का पुण्य कमाना।

जो मूर्ति हृदय में है बसी वही सामने हो खड़ी,

आ जावे झट-पट वह घड़ी यही लालसा है बड़ी।"


यह कहकर वह चला गया उस समय दम्भ से,

कृष्णा के पद हुए विपद-भय-जड़-स्तम्भ से !

जान पड़ा वह राजभवन गिरी-गुहा सरीखा,

उसमें भीषण हिंस्र-जन्तु-सा उसको दीखा।

वह चकित मृगी-सी रह गई आँखें, फाड़ बड़ी-बड़ी,

पर-कट पक्षिणी व्योम को देखे ज्यों भू पर पड़ी।


बड़ी देर तक खड़ी रही वह हिली न डोली,

फिर अचेत-सी अकस्मात चिल्लाकर बोली –

"है क्या कोई मुझे बचाओ, करो न देरी,

मैं अबला हूँ आज लाज लुट जाय न मेरी !

ऊपर नीचे कोई सुने मेरी यही पुकार है –

जिसको सद्धर्म-विचार है उस पर मेरा भार है।


हरे ! हरे ! गोविन्द, कृष्ण, तुम आज कहाँ हो ?

अथवा ऐसा ठौर कौन तुम नहीं जहाँ हो ?

रक्खी मेरी लाज तुम्हीं ने बीच सभा में,

हे अनन्त, पट तुम्हीं बने थे नीच-सभा में।

फिर आज विकट संकट पड़ा निकट पुकारूँ मैं किसे ?

यह अश्रु-वारि ही अर्घ्य है आओ अच्युत, लो इसे !"


भींगी कृष्णा इधर आँसुओं के पानी से,

कीचक ने यों कहा उधर जाकर रानी से –

"सैरन्ध्री-सी सखी कहाँ से तुमने पाई ?

बहन, बताओ कि यह कौन है, कैसे आई ?

देवी-सी दासी-रूप में दीख रही यह भामिनी।

बन गई तुम्हारी सेविका मेरे मन की स्वामिनी !"


सुन भाई की बात बहन ठिठकी, फिर बोली –

"ठहरो भैया, ठीक नहीं इस भाँति ठिठोली।

भाभी हैं क्या यहाँ चिढ़ें जो यह कहने से ?

और मोद हो तुम्हें विनोद-विषय रहने से !

अपमान किसी का जो करे वह विनोद भी है बुरा,

यह सुनकर ही होगी न क्या सैरन्ध्री क्षोभातुरा !


मैं भी उसको पूर्णरूप से नहीं जानती,

एक विलक्षण वधू मात्र हूँ उसे मानती।

सुनो, कहूँ कुछ हाल कि वह है कैसी नारी ?

उस दिन जब अवतीर्ण हुई, सन्ध्या सुकुमारी –

बैठी थी मैं विश्रान्ति से सहचरियों के संग में,

होता था वचन-विलास कुछ हास्य पूर्ण रस-रंग में।


वह सहसा आ खड़ी हुई मेरे प्रांगण में,

जय-लक्ष्मी प्रत्यक्ष खड़ी हो जैसे रण में !

वेश मलिन था किन्तु रूप आवेश भरा था।

था उद्देश्य अवश्य किन्तु आदेश भरा था।

मुख शान्त दिनान्त समान ही, निष्प्रभ किन्तु पवित्र था।

नभ के अस्फुट नक्षत्र-सा, हार्दिक भाव विचित्र था।


मुझ पर आदर दिखा रही थी, पर निर्भय थी,

अनुनय उसमें न था, सहज ही वह सविनय थी।

नेत्र बड़े थे, किन्तु दृष्टि भी सूक्ष्म बड़ी ही,

सबके मन में पैठ बैठ वह गई खड़ी ही !

वह हास्य बीच में ही रुका, सन्नाटा-सा छा गया,

मेरे गौरव में भी स्वयं कुछ घाटा-सा आ गया।


मुद्रा वह गम्भीर देख सब रुकी, जकी-सी

और दृष्टियाँ एकसाथ सब झुकी, थकी-सी।

काले काले बाल कन्धरा ढके खुले थे

गुँथे हुए-से व्याल मुक्ति के लिए तुले थे !

दृक् -पात न करती थी तनिक सौध विभव की ओर वह,

क्या कहूँ सौम्य या घोर थी कोमल थी कि कठोर वह !


सहसा मैं उठ खड़ी हुई उठ खड़ी हुई सब,

पर नीरव थी, भ्रान्त भाव में पडी हुई सब।

कया ससम्भ्रम प्रश्न अन्त में मैंने ऐसे –

भद्रे, तुम हो कौन ! और आई हो कैसे ?

उसके उत्तर के भाव का लक्ष्य न जाने था कहाँ –

मैं ? हाँ मैं अबला हूँ तथा आश्रयार्थ आई यहाँ।


इस पर निकला यही वचन तब मेरे मुख से –

अपना ही घर समझ यहाँ ठहरो तुम सुख से।

आश्रयार्थिनी नहीं असल में अतिथि बनी वह,

नहीं सेविका, किन्तु हुई मेरी स्वजनी वह।

अनुचरियों को साहस नहीं समझें उसे समान वे,

रह सकती नहीं किए बिना उसका आदर मान वे।


बहुधा अन्यमनस्क दिखाई पड़ती है वह,

मानो नीरव आप आप से लड़ती है वह !

करती करती काम अचानक रुक जाती है,

करके ग्रीवा-भंग झोंक से झुक जाती है !

बस भर सँभाल कर चित्त को श्रम से वह थकती नहीं,

पर भूल करे तो भर्त्सना मैं भी कर सकती नहीं।


कार्य-कुशलता देख-देख उसकी विस्मय से,

इच्छा होती है कि बड़ाई करे हृदय से।

किन्तु दीर्घ निश्वास उसे लेते विलोक कर,

रखना पड़ता मौन-भाव ही सहज शोक कर !

कुछ भेद पूछने से उसे होता मन में खेद है,

अति असन्तोष है पर उसे यांचा से निर्वेद है।


ऐसी ही दृढ़ जटिल चरित्रा है वह नारी,

दुखिया है, पर कौन कहे उसको बेचारी।

जब तब उसको देख भीति होती है मन में,

तो भी उस पर परम प्रीति होती है मन में।

अपना आदर मानो दया – करके वह स्वीकारती,

पर दया करो तो वह स्वयं, घृणा-भाव है धारती !


वृक्ष-भिन्न-सी लता तदपि उच्छिन्न नहीं वह,

मेरा सद्व्यवहार देखकर खिन्न नहीं वह।

जान सकी मैं यही बात उस गुणवाली की,

आली है वह विश्व-विदित उस पांचाली की।

जो पंच पाण्डवों की प्रिया प्रिय-समेत प्रच्छन्न है,

बस इसीलिए वह सुन्दरी सम्प्रति व्यग्र विपन्न है।