भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 7

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: मैथिलीशरण गुप्त

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

जल-सिंचन कर, और व्यंजन कर, हाथ फेर कर,

किया भीम ने सजग उसे कुछ भी न देर कर।

फिर आश्वासन दिया और विश्वास दिलाया,

वचनामृत से सींच सींच हत हृदय जिलाया।

प्रण किया उन्होंने अन्त में कीचक के संहार का,

फिर दोनों ने निश्चय किया साधन सहज प्रकार का।


पर दिन कृष्णा सहज भाव से दीख पड़ी यों,

घटना कोई वहाँ घटी ही न हो बड़ी ज्यों।

कीचक से भी हुई सहज ही देखा देखी,

मानो ऐसी सन्धि ठीक ही उसने लेखी।

“सैरन्ध्री” कीचक ने कहा – “अब तो तेरा भ्रम गया ?

विरुद्ध देखा न सब निष्फल तेरा श्रम गया ?


अब भी मेरा कहा मान हठ छोड़ हठीली,

प्रकृति भली है सरल और तनु-यष्टि गठीली !”

सुन कर उसकी बात द्रौपदी कुछ मुसकाई,

मन में घृणा, परन्तु बदन पर लज्जा लाई।

कीचक ने समझा अरुणिमा आई है अनुराग की,

मुँह पर मल दी प्रकृति ने मानों रोली फाग की !


बोली वह – “हे वीर, मनुज का मन चंचल है,

किन्तु सत्य है स्वल्प, अधिक कौशल या छल है।

प्रत्यय रखती नहीं इसीसे मेरी मति भी,

भूल गए हैं मुझे अचानक मेरे पति भी !

अब तुम्हीं कहो, विश्वास मैं रक्खूँ किसकी बात पर ?

अन्धेरे में एकाकिनी रोती हूँ बस रात भर।


रहता कोई नहीं बात तक करने वाला,

तिस पर शयन-स्थान मिला है मुझे निराला।

कहाँ उत्तरा की सुदीर्घ तौर्यत्रिक शाला,

उसका वह विश्रान्ति-वास दक्षिण दिशि वाला।

कोई क्या जाने काटती कैसे उसमें रात मैं ?

पागल सी रहती हूँ पड़ी सहकर शोकाघात मैं।”


कीचक बोला – “अहा ! आज मैं आ जाऊँगा,

प्रत्यय देकर तुझे प्रेयसी पा जाऊँगा।”

“अन्धेरे में कष्ट न होगा ?” कहकर कृष्णा,

मन्दहास में छिपा ले गई विषम वितृष्णा !

“रौरव में भी तेरे लिए जा सकता हूँ हर्ष से।”

यह कह कर कीचक भी गया मानो विजयोत्कर्ष से।


यथा समय फिर यथा स्थान वह उन्मद आया,

सौरन्ध्री की जगह भीम को उसने पाया।

पर वह समझा यही कि बस यह वही पड़ी है !

बड़े भाग्य से मिली आज यह नई घड़ी है !

झट लिपट गया वह भीम से चपल चित्त के चाव में,

आ जाय वन्य पशु आप खिंच ज्यों अजगर के दाँव में।


पल में खल पिस उठा भीम के आलिंगन से,

दाँत पीस कर लगे दबाने वे घन घन से !

चिल्लाता क्या शब्द-सन्धि थी किधर गले की ?

आ जा सकी न साँस उधर से इधर गले की !

मुख, नयन, श्रवण, नासादी से शोणितोत्स निर्गत हुआ,

बस हाड़ों की चड़ मड़ हुई यों वह उद्धत हत हुआ !


लेता है यम प्राण, बोलता है कब शव से ?

पटक पिण्ड-सा उसे भीम बोले नव रव से –

“याज्ञसेनी, आ, देख यही था वह उत्पाती ?

किन्तु चूर हो गई आह ! मेरी भी छाती !”

हँस बोले फिर वे – “बस प्रिये, छोड़ मान की टेक दे,

आकर अपनी हृदयाग्नि से अब तू मुझको सेक दे !”


देख भीम का भीम कर्म भीमाकृति भारी,

स्वयं द्रौपदी सहम गई भय-वश बेचारी।

कीचक के लिए भी खेद उसको हो आया,

कहाँ जाय वह सदय हृदय ममता-माया ?

हो चाहे जैसा ही प्रबल यह अति निश्चित नीति है,

मारा जाता है शीघ्र ही करता जो अनरीति है।