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बेटियाँ, बेटियाँ, बेटियाँ / रवीन्द्र प्रभात

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बेटियाँ, बेटियाँ, बेटियाँ
बन रही तल्ख़ियाँ, बेटियाँ।

सुन के अभ्यस्त होती रही,
रात-दिन गालियाँ, बेटियाँ।

सच तो ये है कि तंदूर में,
जल रही रोटियाँ, बेटियाँ।

घूमती है बला रात-भर,
बंद कर खिड़कियाँ,बेटियाँ।

कौन कान्हा बचाएगा अब,
लग रही बोलियाँ, बेटियाँ।