भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब चलो ये भी ख़ता की जाए /गोविन्द गुलशन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:17, 6 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब चलो ये भी ख़ता की जाए
दिल के दुशमन से वफ़ा की जाए

वो ही आए न बहारें आईं
क्या हुई बात पता की जाए

है इसी वक़्त ज़रूरत उसकी
बावुज़ू हो के दुआ की जाए

ज़ुल्म भरपूर किए हैं तूने
अब अनायत भी ज़रा की जाए

दर्दे-दिल है ये मज़ा ही देगा
दर्दे-सर हो तो दवा की जाए