भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे रूप का गान / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:33, 10 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं विरह का नहीं
गान है आज सपने का
एक नदी का, जल-फूल का
पानी पड़ती सवेरे की लाल रोशनी में
दिपदिपाते तुम्हारे चेहरे का
तुम्हारी आंख में उजागर सपने का
नहीं विरह का नहीं
आज गान है तुम्हारे रूप का
काल को पराजित करती
तुम्हारी अमर छवि का
नहीं, विरह का नहीं
मेरे रूप-दग्ध शब्दों में
स्वप्न की लय-ताल पर
गान है आज
रूप का, यौवन का
जीवन का ....