भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूलों को फूल ही रहने दें / तारा सिंह

Kavita Kosh से
Rajivsinghonline (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 17:01, 4 जनवरी 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: तारा सिंह

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*

बैठ गया है, मेरे दिल में
बनकर कोई तांत्रिक
जाने कौन अशुभ घड़ी थी, वह
जो मैंने किया उसको आमंत्रित
एक अनगढ़ा पत्थर - सा
पड़ा हुआ था, सड़क के किनारे
उसको चमकाने के लिए
हम क्यों नगर ले आए
गदले पानी के गढ़े में
एक जंगली पौधा- सा खड़ा था
हम क्यों उसे अपने आँगन में
तुलसी-चौरे पर लाकर बोये
रातों के अँधेरे में घूमता था
निशाचर - सा , इधर- उधर
हम क्यों उसकी राहों में
दीप जलाकर उजाला किये
सौ बातों की एक बात है
जो जहाँ हैं, वहीं रहें
फूलों को फूल ही रहने दें
पत्थर को पत्थर ही कहें