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दोनों हाथ जोड़कर / हिमांशु पाण्डेय

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मैं अपनी कवितायें
तुम्हें अर्पित करता हूँ
जानता हूँ
कि इनमें खुशियाँ हैं
और प्रेरणाएँ भी
जो यूँ तो सहम जाती हैं
घृणा और ईर्ष्या के चक्रव्यूह से
पर, नियति इनमें भी भर देती है
नित्य का संगीत ।

यह कवितायें तुम्हारे लिये
इसलिये
कि यह कर्म और कारण की धारणा से
पृथक होकर लिखी गयी हैं
और यह मेरी तृप्त भावनाओं का अर्घ्य हैं ।

मेरी क्षुद्र-मति
यही तो कह रही है बारंबार
अपने संकल्प और विकल्प के दोनों हाँथ जोड़कर

कि ये कवितायें मेरी हैं.....
कि ये कवितायें मेरी नहीं हैं !