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भूमिका (बाल्यकाल : स्मृतियाँ) / जी० शंकर कुरुप

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बाल्यकाल : स्मृतियाँ
एक ऊजड़ गाँव के छोटे परिवार में मेरा जन्म हुआ था । आर्थिक दृष्टि से दीरद्र होने पर भी मां तथा मामाजी के वात्सल्य धन की गोद मे मैं पला था । पिताजी को अभी आंख भर देख भी न पाया था कि उन का देहान्त हो गया । मेरे पिताजी मुझे शोकसागर मे छोड़ कर चले गये और मेरे भीतर एक ऐसी रिक्तता छोड़ गये जिस की पूर्ति असम्भव है । उन को स्मरण करते हुए मेरा मन कभी कभी किसी अदृश्य लोक मे पहुँच जाता ओर आध्यात्मिक ज्ञान से अपनी झोली भर कर लौट आता । मेरी मां का हृदय प्रकृति के समान विशाल था । मेरे मामाजी चाहते थे कि उन का भानजा शीघ्रातिशीघ्र आदमी बन जाये । तीन वर्ष की आयु में उन्होंने मेरा विद्यारम्भ कराया एवं आठ वर्ष की आयु तक पढ़ाया । उन्होंने न तो मुझे खेलने दिया न सखाओं के साथ मिलकर ऊधम मचाने दिया । मेरा शारीरिक नही मानसिक स्वास्थ्य उन का अभीष्ट लक्ष्य था । बचपन में ही आदमी बन जाना कोई अच्छी बात नहीं । किन्तु मैं उसी रास्ते पर चल रहा था । अमर कोश, सिद्धरूपम्, श्रोरामोदन्तम् आदि ग्रन्थ कण्ठस्थ हो चुके थे । रघुवंश काब्य के कई श्लोक पढ़ चुका था । ऐसे समय सौभाग्यवश मेरे गाँव में एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना हुई । मामाजी ने मुझे पाठशाला के दूसरे वर्ग में भर्ती करा दिया । इस प्रकार कठिन अनुशासन में संस्कृत काव्यों को कण्ठस्थ करने के काम से छुट्टी मिली । साथ ही साथ अपनी इच्छा के अनुसार स्वतन्त्र रूप से काब्य रसास्वादन की प्रेरणा मन में जाग उठी । मेरे मामाजी के पास भाषा टीका के साथ संस्कृत काव्यों के बहुत से ग्रन्थ थे । मैं उन्हें पढ़ने लगा । कविता के प्रति कौतुक बढ़ाने वाली उस शिक्षा के प्रति अपना ऋण मैं कृतज्ञता के साथ स्वीकार करता हूं । संस्कृत काब्य जगत् मे प्रवेश करने का जो द्वार मेरे लिए उस समय खुला था उस को मैने आज तक बन्द नही होने दिया । इसी तत्परता के रूप मे मैं अपनी गुरुदक्षिणा देता रहूँ यही मेरी कामना है ।

कविता की ओर मुझे उन्मुख कर देनेवाली एक और घटना भी घटी । 1087 के (मलयालम संवत् ) लगभग जब मैं ग्यारह वर्ष का था, महाकवि कुंजिकुट्टन तंपुरान अपने कुछ नंपूतिरि मित्रों की प्रेरणा से मेरे घर के समीपस्थ इतिहास प्रसिद्ध मन्दिर मे पधारे । (चेरमान् पेरुमाल् द्वारा गुरुपदेशानुसार निर्मित कहे जानेवाले प्रस्तुत मन्दिर के बारे मे बहुत सी दन्तकथाएं प्रचलित हैं । मम्दिर की भित्ति पर अंकित चित्र कला प्रेमियों को आकर्षित करनेवाले हैं ।) चेङ्ङलूरमन के हाथों को उत्सवाघोष के लिए लाये जाने पर जो अद्भुत आह्लाद प्रकट किये गये वही सब कुछ महाकवि के आगमन पर भी गांव मे परिलक्षित हुए । "कवि बनना एक महान दैवी सिद्धि है" शायद मुझे उस दिन ऐसा लगा हो्गा । तंपुरान् के प्रति मेरे मन मे उत्पन्न आदर औरर पक्षपात वर्षों तक रहा । किन्तु बाद को उन की कविताओ मे से कुछ ही ने कविता की हैसियत से मुझ को आनन्दित किया है । शायद केवल भावगीतों को ही (लिरिक) कविता मान बैठनेवाली मेरी मुग्धता ही इस का कारण हो । साहित्य की ओर मुझे आकर्षित करने वा्ली एक प्रमुख घटना थी यह मुलाकात । मेरी माताजी गर्व का अनुभव किया करती थीं कि आठवें महीने मे शंकर चलने लगा । उसी तरह मातुल भी कहा करते थे कि उसने नबें वर्ष मे कविता लिखी । आज लज्जा के साथ मैं याद करता हूं कि वे सब पद्य की हैसियत से भी मूल्यवान प्रयास नहीं थे । जव मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था अपने एक सहपाठी के प्रति उत्पन्न कृतज्ञता पर अपने पुराने घर के किसी कोने मे बैठकर संस्कृत के छन्दों में कुछ पंक्तियाँ लिखीं । (वह सहपाठी, जिसने पीलिया के आघात से कक्षा मे चक्कर खाकर गिर जाने पर मुझेको अपने कंधे पर उठाकर एक मील पैदल चलकर घर पहुंचाया था, आज ज़िन्दा नहीं है ।) वे पंक्तियाँ भी छन्दों के बन्धन मे रहने की शिक्षा प्राप्त अक्षर मात्र थीं । एक कुटुम्बी मित्र ने, जो ’कान्त छन्द’ का लक्षण देखकर मात्रा और पंक्तियों को मिलाते थे, मेरी जो प्रशंसा की, वह शायद उन के सौजन्य के कारण । ’अक्षरश्लोक ’ एवं तुकबन्दी --ये दोनों, विद्यार्थियों में से हम कुछ लोगों के लिए मध्याह्न भोजन के स्थान पर होनेवाला कार्यक्रम बना हुआ था । क्षीरसागर मन्थन की कथा को विभाजित कर मैं और मेरे मित्र ने जो शतक लिखा उस को सुनकर पेरुम्पावूर स्कूल के सातवीं कक्षा के अध्यापक ने कहा -- "शतक सुनाने की परीक्षा आ रही है ।"

उस अवस्था से ही मैं साम्यवाद के पक्ष में दरिद्रों के साथ रहा हूं । प्रसिद्ध वाग्मी एवं प्रशस्त समाजसेवक श्रो एम0 एन0 नायर, जो बाद में सर्विस सोसाइटी की सेवा में चले गये मुवाट्टुपुषा मे मेरे अध्यापक थे । वे मुझे बड़े लाड़ प्यार से प्रोत्साहित किया करते थे । ब्रिटिश हिस्ट्री और अर्थशास्त्र वे ही पढ़ाते थे । सोश्यलिज्म के पर्यायवाची शब्दों के तौर पर वे कभी समष्टिवाद और कभी ’समाजसमत्ववाद’ के शब्द इस्तेमाल करते थे । "अपनी समस्त सम्पदा को समाज की सम्पत्ति बनाकर समान रूप से उपभोग करने के लिए जो सन्नद्ध है वे खड़े हो जायें", एक दिन गुरुजी ने हंसते हुए कहा । मैं उठ खड़ा हुआ । "इस से तो शंकर कुरुप की कोई सम्पत्ति नष्ट होनेवाली नहीं है न ?" हंसते हुए फिर जब गुरुजी ने पूछा तो मई लज्जित भी हुआ ही । बाद को ही मुझको पता चला कि एशिया के राष्ट्रों में मुझ से कम सम्पत्ति रखनेवाले ही मेरे जैसे सम्पत्तिवालों से कहीं अधिक हैं ।रूस उन दिनों आर्थिक क्रांति का द्वार खटखटा रहा था ।
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