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जागेगा फिर कोई सपना / आलोक श्रीवास्तव-२

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लौट आओ मेरे उदास गीतों
हालांकि तुम्हारी ही सबसे सख़्त जरूरत है ...

दुख की ही लहरें हैं फिलहाल
दर्द है बहुत गहरा --
किसी को प्रेम करने और न भुला पाने का
एक उदासी है चारों ओर
गुंजलकें कसता
अवसाद है

अब जा कर पता चला कि
वे तुम्हारी मोहक आंखें न थीं
हज़ार गीतों से कीमती
तुम्हारी धीमी आवाज़ भी नहीं
न तुम्हारी काया का
अमर सौंदर्य

वह मेरी ही प्रेम करने की शक्ति थी
जो मुझे लिये जाती थी
उस अमर लोक में
जिसके एक छोर पर तुम खड़ी थीं --
मधुर, मायावी और गरिमामय
पर धरती के सबसे प्राचीन कवियों की
कल्पना की तरह
मूर्त, ठोस और
हकीक़त

वह लिये जाती थी मुझे
भावना के एक विस्मय लोक में
जहां फेनिल रंग में डूबे झरनों का
खनखनाता निनाद था
जहां सागर की उत्तुंग उठी गर्वीली लहरों की
कगार पर विक्षुब्ध पछाड़ थी ...

ऊंचे कद्दावर दरख़त थे
और गुंजान हवाएं

वह लिये जाती थी मुझे
कल्पना के हिल्लोलित विशाल अंबुधि के तट पर
जहां सरस्वती का एक आदि बिंब था
गूंजती हुई वीणा की तरंगों पर थिरकता
मृदु दल का एक नीला सरसिज था

वहीं तुम थीं --
भव्य, विराट और अप्रतिम
एक पुराने नगर के सड़कों के बीच
खुद से अनजान
अपने ही को भूलीं

वहां सपने थे, आंसू थे, वचन थे
वहां प्रतीक्षा थी, मनुहार था,
छोटे-छोटे दुखों से मिल कर बना एक संसार था
अपनी पूरी सरंचना में
मासूम और रंगों में खोया

वह मुझे लिये जाती थी
अपनी ही पुकार की अनुगूंजों के पीछे
जहां एक दूसरी ही दुनिया थी
जहां घुंघरू नहीं थे, पाजेबें नहीं थीं
स्वर्ण और माणिक न थे
पारदर्शी खंभों पर टिके
स्वयंवर को सजे महल न थे
दूर देश से आती
सोने से लदी नौकाएं न थीं
पण्य बन गई
पृथ्वी की संपदा न थी जहां

वह लिए जाती थी मुझे
प्रेरणा के एक गहन जगत में
जहां तुम कोई एक और ही तुम थीं
व्यक्तित्व के सतरंगी परिधानों में
दृढ़, तेजस्वी और स्नेहिल भाव लिए

वह लिए जाती थी मुझे
एक महाकाव्य की नायिका की ओर
हिमालय के उज्ज्वल और भव्य शिखर थे जहां
चीडों को भेदती तेज़ हिमानी हवाएं
और प्रकृति का आदिम बियाबान ...

मिथक होती एक नदी थी वहां
पीछे छूटता एक जंगल

एक घाटी थी अंधेरे में डूबी

सागर के किनारे एक सूर्यास्त था
और एक महानगर --
मध्यकालीन परकोटों से घिरा
सागर की टकराती, टूटती विकल लहरों की आवाज़ से बंधा

वहां तुम न थीं

वह अपने ही ख़याल का कोई तसव्वुर था

हज़ारों बरस पुरानी हज़ारों कविताओं के
बिंबों की स्वरमाला पर चला आया
वह कोई और ही चेहरा था
जो इसी नगर के किसी वीराने में खो गया ...

लौट जाओ मेरे उदास गीतों
वह मेरी ही प्रेम करने की शक्ति है
धरती के सबसे पुराने स्वप्नों से निर्मित
सबसे गहरे गीतों की गूंज से आंदोलित
जो फिर उठ खड़ी होगी
सारे शब्द उसके स्पर्श से
फिर मुखरित होंगे

फिर गूंजेगी सूने पहाड़ों की हंसी
हरियाली में डूबी धरती होगी

जागेगा फिर कोई सपना ...