शहरे आशोब / भाग १ / नज़ीर अकबराबादी
लेखक: नज़ीर अकबराबादी
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है अब तो कुछ सुख़न२ का मेरे कारोबार बंद ।
रहती है तबअ३ सोच में लैलो निहार४ बंद ।
दरिया सुख़न की फ़िक्र का है मौज दार बंद ।
हो किस तरह न मुंह में जुबां बार बार बंद ।
जब आगरे की ख़ल्क़ का हो रोज़गार बंद ।।1।।
बेरोज़गारी ने यह दिखाई है मुफ़्लिसी६ ।
कोठे को छत नहीं हैं यह छाई हैं मुफ़्लिसी ।
दीवारो दर के बीच समाई है मुफ़्लिसी ।
हर घर में इस तरह से भर आई है मुफ़्लिसी ।
पानी का टूट जावे है जूं एक बार बंद ।।2।।
कड़ियाँ जो साल की थीं बिकी वह तो अगले साल ।
लाचार कर्जों दाम से छप्पर लिए हैं डाल ।
फूस और ठठेरे इसके हैं जूं सरके बिखरे बाल ।
उस बिखरे फूस से है यह उन छप्परों का हाल ।
गोया कि उनके भूल गए हैं चमार, बंद ।।3।।
दुनिया में अब क़दीम७ से है ज़र८ का बन्दोबस्त९ ।
और बेज़री१० में घर का न बाहर का बन्दोबस्त ।
आक़ा११ का इन्तिज़ाम न नौकर का बन्दोबस्त ।
मुफ़्लिस१२ जो मुफ़्लिसी में करे घर का बन्दोबस्त ।
मकड़ी के तार का है वह नाउस्तुवार१३ बंद ।।4।।
कपड़ा न गठड़ी बीच, न थैली में ज़र रहा ।
ख़तरा न चोर का न उचक्के का डर रहा ।
रहने को बिन किवाड़ का फूटा खंडहर रहा ।
खँखार१४ जागने का, न मुतलक़१५ असर रहा ।
आने से भी जो हो गए चोरो चकार बंद ।।5।।
अब आगरे में जितने हैं सब लोग है तबाह ।
आता नज़र किसी का नहीं एक दम निबाह ।
माँगो अज़ीज़ो ऐसे बुरे वक़्त से पनाह ।
वह लोग एक कौड़ी के मोहताज अब हैं आह ।
कस्बो१६ हुनर के याद है जिनको हज़ार बंद ।।6।।
सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ, साहूकार ।
देते थे सबको नक़्द, सो खाते हैं अब उधार ।
बाज़ार में उड़े है पड़ी ख़ाक बे शुमार ।
बैठें हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार ।
जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतार बंद ।
सौदागरों को सूद, न व्यौपारी को फ़लाह।।7।।
बज्ज़ाज को है नफ़ा न पनसारी को फ़लाह ।
दल्लाल को है याफ़्त१८, न बाज़ारी को फ़लाह ।
दुखिया को फ़ायदा न पिसनहारी को फ़लाह ।
याँ तक हुआ है आन के लोगों का कार बंद ।।8।।
मारें है हाथ पे सब यां के दस्तकार ।
और जितने पेशावर१९ हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार ।
कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार ।
कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार ।
छत्तीस पेशे बालों के हैं कारोबार बंद ।।9।।
ज़र के भी जितने काम थे वह सब दुबक२० गए ।
और रेशमी क़िवाम२१ भी यकसर चिपक(१) गए ।
ज़रदार उठ गए तो बटैये२२ सरक गए ।
चलने से काम तारकशों२३ के भी थक गए ।
क्या हाल खींचे जो हो जाए तार बंद ।।10।।
बैठे बिसाती राह में तिनके से चुनते हैं ।
जलते हैं नानबाई२४ तो भड़भूजे२५ भुनते हैं ।
धुनिये भी हाथ मलते हैं और सर को धुनते हैं ।
रोते हैं वह जो मशरुओ२६ दाराई२७ बुनते हैं ।
और वह तो मर गए जो बुनें थे इज़ार बंद ।।11।।
बेहद हवासियों में दिये ऐसे होश खो,
रोटी न पेट में हो तो शहवत कहां से हो,
कोई न देखे नाच, न रंडी कि सूंघे बू,
यां तक तो मुफ़लिसी है कि क़स्बी का रात को,
दो-दो महीने तक नहीं खुलता इजारबंद।
जब आगरे की ख़ल्क़ का है रोज़गार बंद ।।12।।
गर काग़ज़ी के हाल के काग़ज़ को देखिए ।
मुतलक़ उसे ख़बर नहीं काग़ज़ के भाव से ।
रद्दी, क़लम दुकान में, न टुकड़े हैं टाट के ।
याँ तक कि अपनी चिट्ठी के लिखने के वास्ते ।
काग़ज़ का मांगता है हर इक से उधार बंद ।।13।।
लूटे हैं गरदो पेश१८ जो क़्ज्ज़ाक२९ राह मार ।
व्यापारी आते जाते नहीं डर से ज़िनहार३० ।
कुतवाल रोवें, ख़ाक उड़ाते हैं चौकी दार ।
मल्लाहों का भी काम नहीं चलता मेरे यार ।
नावें हैं घाट-घाट की सब वार पार बंद ।।14।।
हर दम कमां गरों३१ के ऊपर पेचो ताब हैं ।
सहोफ़े३२ अपने हाल में ग़म की किताब हैं ।
मरते हैं मीनाकार मुसव्विर३३ कबाव हैं ।
नक़्क़ास३४ इन सभों से ज़्यादा ख़राब हैं ।
रंगो क़लम के होगए नक़्शों निगार३५ बंद ।।15।।
बैचेन थे यह जो गूंध के फूलों के बध्धी हार ।
मुरझा रही है दिल की कली जी है दाग़दार ।
जब आधी रात तक न बिकी, जिन्स आबदार ।
लाचार फिर वह टोकरी अपनी ज़मी पे मार ।
जाते हैं कर (१) दुकान को आख़िर वह हार बंद ।।16।।
हज्ज़ाम३६ पर भी यां तईं है मुफ़्लिसी का ज़ोर ।
पैसा कहाँ जो सान पे हो उस्तरों का शोर ।
कांपे है सर भिगोते हुए उसकी पोर पोर ।
क्या बात एक बाल कटे या तराशे कोर ।
याँ तक हैं उस्तरे व नहरनी की धार बंद ।।17।।
डमरू(२) बजाके वह जो उतारे हैं ज़हर मार ।
आप ही वह खेलते हैं, हिला सर ज़मीं पे मार ।
मन्तर तो जब चले कि जो हो पेट का आघार ।
जब मुफ़्लिसी का सांप हो उनके गले का हार ।
क्या ख़ाक फिर वो बांधें कहीं जाके मार बंद ।।18।।
लज़्ज़त३७ है ज़िक्रो हुस्न३८ के नक़्शो निगार३९ से ।
महबूब है जो गुन्चे दहन४० गुल इज़ार४१ से ।
आवें अगर वह लाख तरह की बहार से ।
कोई न देखे उनको नज़र भर के प्यार से ।
ऐसे दिलों के होगए आपस में कार बंद ।।19।।
फिरते हैं नौकरी को जो बनकर रिसालादार४२ ।
घोड़ों की (१) हैं लगाम न ऊंटों के है महार४३ ।
कपड़ा न लत्ता, पाल न परतल न बोझ मार ।
यूं हर मकां में आके उतरते हैं सोगवार ।
जंगल में जैसे देते हैं लाकर उतार बंद ।।20।।