शहरे आशोब / भाग २ / नज़ीर अकबराबादी
लेखक: नज़ीर अकबराबादी
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कोई पुकारता है पड़ा ‘भेज’ या ‘ख़ुदा’ ।
अब तो हमारा काम थका भेज या ख़ुदा ।
कोई कहे है हाथ उठा भेज या ख़ुदा ।
ले जान अब हमारी तू या भेज या ख़ुदा ।
क्यूँ रोज़ी यूँ है कि मेरे परवरदिगार४४ बंद ।।21।।
मेहनत से हाथ पांव के कौड़ी न हाथ आए ।
बेकार कब तलक कोई कर्ज़ों उधार खाये ।
देखूँ जिसे वह करता है रो-रो के हाय ! हाय ! ।
आता है ऐसे हाल पे रोना हमें तो हाय ।
दुश्मन का भी ख़ुदा न करे कारोबार बंद ।।22।।
आमद४५ न ख़ादिमों४६ के तईं मक़बरों४७ के बीच ।
बाम्हन(१) भी सर पटकते हैं सब मन्दिरों के बीच ।
आज़िज़ हैं इल्म बाले भी सब मदरसों के बीच ।
हैरां हैं पीरज़ादे४८ भी अपने घरों के बीच ।
नज़रों नियाज़४९ हो गई सब एक बार बंद ।।23।।
इस शहर के फ़कीर भिखारी जो हैं तबाह ।
जिस घर पे जा-जा सवाल वह करते हैं ख़्वाहमख्वाह ।
भूखे हैं कुछ भिजाइयो बाबा ख़ुदा की राह ।
वाँ से सदा५० यह आती है ‘फिर माँगो’ जब तो आह ।
करते हैं होंट अपने वह हो शर्म सार बंद ।।24।।
क्या छोटे काम वाले वह क्या पेशेवर नजीब५१
रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़५२ हैं सब ग़रीब ।
होती है बैठे बैठे जब आ शाम अनक़रीब ।
उठते हैं सब दुकान से कहकर के या नसीब५३ ।
क़िस्मत हमारी हो गई बेइख़्तियार बंद ।।25।।
किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं ।
अलबत्ता रूखी सूखी वह रोटी पकाते हैं ।
जो खाली आते हैं वह क़र्ज़ लेते जाते हैं ।
यूं भी न पाया कुछ तो फ़कत ग़म ही खाते हैं ।
सोते हैं कर किवाड़ को एक आह मार बंद ।।26।।
क्यूँकर भला न माँगिये इस वक़्त से पनाह ।
मोहताज हो जो फिरने लगे दरबदर सिपाह।
याँ तक अमीर ज़ादे सिपाही हुए तबाह ।
जिनके जिलू में चलते थे हाथी व घोड़े आह।
बह दौड़ते हैं और के पकड़े शिकार बंद ।।।27।।
है जिन सिपाहियों कने५९ बन्दूक और सनां६० ।
कुन्दे का उनके नाम न चिल्ले का है निशां ।
चांदी के बंद तार तो पीतल के हैं कहां ।
लाचार अपनी रोज़ी का बाअस६१ समझ के हां ।
रस्सी के उनमें बांधे हैं प्यादे सवार बंद ।।28।।
जो घोड़ा अपना बेच के ज़ीन६२ को गिरूं६३ रखें ।
या तेग और सिपर१४ को लिए चौक में फिरें ।
पटका६४ जो बिकता आवे तो क्या ख़ाक देके लें ।
वह (१) पेश कबुज६६ बिक के पड़े रोटी पेट में ।
फिर उसका कौन मोल ले वह लच्चेदार बंद ।।29।।
जितने सिपाही याँ थे न जाने किधर गए ।
दक्खिन के तईं निकल गए यो पेशतर६७ गए ।
हथियार बेच होके गदा६८ घर ब घर गए ।
जब घोड़े भाले वाले भी यूं दर बदर६९ गए ।
िर कौन पूछे उनको जो अब हैं कटार बंद ।।30।।
ऐसा सिपाह७० मद का दुश्मन ज़माना है ।
रोटी सवार को है, न घोड़े को दाना है ।
तनख़्वाह न तलब है न पीना न ख़ाना है ।
प्यादे७१ दिबाल(२) बंद७२ का फिर क्या ठिकाना है ।
दर-दर ख़राब फिरने लगे जब नक़ार बंद७३ ।।31।।
जितने हैं आज आगरे में कारख़ान जात ।
सब पर पड़ी है आन के रोज़ी की मुश्किलात ।
किस किस के दुख़ को रोइये और किस की कहिए बात ।
रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात ।
ऐसी हवा कुछ आरे हुई एक बार बंद ।।32।।
है कौन सा वह दिल जिसे फरसूदगी७४ नहीं ।
वह घर नहीं कि रोज़ी की नाबूदगी७५ नहीं ।
हरगिज़ किसी के हाल में बहबूदगी७६ नहीं ।
अब आगरे में नाम को आसूदंगी नहीं ।
कौड़ी के आके ऐसे हुए रह गुज़ार७७ बंद ।।33।।
हैं बाग़ जितने याँ के सो ऐसे पड़े हैं ख़्वार ।
काँटे का नाम उनमें नहीं(१) फूल दरकिनार७८ ।
सूखे हुए खड़े हैं दरख़्ताने७९ मेवादार ।
क्यारी में ख़ाक धूल, रविश८० पर उड़े-उड़े ग़ुबार ।
ऐसी ख़िजां८१ के हाथों हुई है बहार८२ बंद ।।34।।
देखे कोई चमन तो पड़ा उजाड़ सा ।
गुंचा८३ न फल, न फूल, न सब्जा हरा भरा ।
आवाज़ कुमारियों८४ की, न बुलबुल की है सदा।
न हौज़ में है आब न पानी है नहर का ।
चादर पड़ी है ख़ुश्क तो है आबशार८५ बंद ।।35।।
बे वारसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह ।
फूटी हवेलियां हैं तो टूटी शहर पनाह ।
होता है बाग़बां८७ से, हर एख बाग़ का निबाह ।
वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े आह ।
जिसका न बाग़वां हो, न मालिक न ख़ार बंद८८ ।।36।।
क्यों यारों इस मकां में यह कैसी चली हवा ।
जो मुफ़्लिसी से होश किसी का नहीं बचा ।
जो है सो इस हवा में दिवाना सा हो रहा ।
सौदा हुआ मिज़ाज ज़माने को या ख़ुदा ।
तू है हकीम खोल दे अब इसके चार बंद ।।37।।
है मेरी हक़ से अब यह दुआ शाम और सहर ।
कर(१) आगरे की ख़ल्क पै फिर मेहर की नज़र ।
सब खावें पीवें, याद रखें अपने-अपने घर ।
इस टूटे शहर पर इलाही तू फ़ज्ल कर ।
खुल जावें एक बार तो सब कारोबार बंद ।।38।।
आशिक़ कहो, असीर९० कहो, आगरे का है ।
मुल्ला कहो, दबीर९१ कहो, आगरे का ।
मुफ़्लिस९२ कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है ।
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है ।
इस वास्ते यह उसने लिखे पांच चार बंद ।।39।।