भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी बेटी के लिए-3 / प्रमोद त्रिवेदी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:16, 14 मार्च 2010 का अवतरण
अवतरित होती हो तुम
हमारी बोली में,
वाणी में!
भाषा से परे चुपचाप और
अचानक ही चली आती हो
आँखों में भर आए
पानी में!
कितनी-कितनी स्थितियों-स्मृतियों में
कितने-कितने तरह से ढलती हो तुम
कहानी में।
जितनी हो दूर हमसे
पास भी हो उतनी ही
फ़ासले हैं तो कैसे हैं ये
अपनी दरमियानी में।