भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राग मज़हब का सुनाना आ गया / कुमार विनोद

Kavita Kosh से
Gautam rajrishi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 17 मार्च 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विनोद }} {{KKCatGhazal}} <poem> राग मज़हब का सुनाना आ गया …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग मज़हब का सुनाना आ गया
हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया

देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा
ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया

सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर
झूठ को आँखें दिखाना आ गया

ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ
बेघरों को घर बनाना आ गया

कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से
बीच में रिश्ता पुराना आ गया

दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा
और हम समझे ठिकाना आ गया