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सुनीं गुनीं समझी तिहारी चतुराई जिती / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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सुनीं गुनीं समझी तिहारी चतुराई जिती
कान्ह की पढ़ाई कविताई कुबरी की हैं ।
कहै रतनाकर त्रिकाल हूँ त्रिलोक हूँ मैं
आनैं हम नैकु ना त्रिवेद की कही की हैं ॥
कहहि प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बांधि
ऊधौ सांच मन की हिये की अरु जी की हैं ।
वे तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ
हम उनहीं की उनहीं की उनहीं की हैं ॥60॥