भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो महकती पलकों की ओट / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:49, 11 फ़रवरी 2007 का अवतरण
रचनाकार: बशीर बद्र
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
वो महकती पलकों की ओट से कोई तारा चमका था रात में
मेरी बंद मुठ्ठी ना खोलिये वही कोहीनूर था हाथ में
मैं तमाम तारे उठा-उठा कर ग़रीबों में बाँट दूँ
कभी एक रात वो आसमाँ का निज़ाम दे मेरे हाथ में
अभी शाम तक मेरे बाग़ में कहीं कोई फूल खिला न था
मुझे खुशबुओं में बसा गया तेरा प्यार एक ही रात में
तेरे साथ इतने बहुत से दिन तो पलक झपकते गुज़र गये
हुई शाम खेल ही खेल में गई रात बात ही बात में
कभी सात रंगों का फूल हूँ, कभी धूप हूँ, कभी धूल हूँ
मैं तमाम कपडे बदल चुका तेरे मौसमों की बरात में
निज़ाम = व्यवस्था