भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठाम-ठाम जीवनबिहीन दीन दीसै सबे / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:48, 3 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर' |संग्रह=उद्धव-शतक / जगन्नाथ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठाम-ठाम जीवनबिहीन दीन दीसै सबे
चलति चबाई-बात तापत घनी रहै ।
कहै रतनाकर न चैन दिन-रैन परै
सूखी पत-छिन भई तरुनि अनी रहै ॥
जारयौ अंग अब तौ बिधाता है इहां कौ भयौ
तातैं ताहि जारन की ठसक ठनी रहै ।
बगर-बगर बृषभान के नगर हित
भीषम-प्रभाव ऋतु ग्रीष्म बनी रहै ॥88॥