भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तल्ख़ियाँ सारी फ़ज़ा में घोलकर / कुमार विनोद
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:17, 6 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विनोद }} {{KKCatGhazal}} <poem> तल्ख़ियाँ, सारी फ़ज़ा मे…)
तल्ख़ियाँ, सारी फ़ज़ा में घोलकर
क्या मिलेगा बात सच्ची बोलकर
गुम हुए ख़ुशियों के मौसम इन दिनों
इसलिए जब भी हँसो, दिल खोलकर
भेद खुल जाएँगे जब आकाश के
देख तो अपने परों को तोलकर
बात करते हो उसूलों की मियाँ
भाव रद्दी के बिकें सब तोलकर
शौक़ बिकने का अगर इतना ही है
ज़िस्म क्या फिर रुह का भी मोलकर