(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
अकेलेपन से जो लोग दुखी हैं,
वृत्तियाँ उनकी,
निश्चय ही, बहिर्मुखी हैं ।
सृष्टि से बाँधने वाला तार
उनका टूट गया है;
असली आनन्द का आधार
छूट गया है ।
उदगम से छूटी हुई नदियों में ज्वार कहाँ ?
जड़-कटे पौधौं में जीवन की धार कहाँ ?
तब भी, जड़-कटे पौधों के ही समान
रोते हैं ये उखड़े हुए लोग बेचारे;
जीना चाहते हैं भीड़-भभ्भड़ के सहारे ।
भीड़, मगर, टूटा हुआ तार
और तोड़ती है
कटे हुए पौधों की
जड़ नहीं जोड़ती है ।
बाहरी तरंगो पर जितना ही फूलते हैं,
हम अपने को उतना ही और भूलते हैं ।
जड़ जमाना चाहते हो
तो एकान्त में जाओ ;
अगम-अज्ञात में अपनी सोरें फैलाओ ।
अकेलापन है राह
अपने आपको पाने की ;
जहाँ से तुम निकल चुके हो,
उस घर में वापस जाने की ।
अंग्रेजी से अनुवाद : रामधारी सिंह 'दिनकर'