थेहड़ में सोए शहर
कालीबंगा की गलियाँ
कहीं तो जाती हैं
जिनमें आते-जाते होंगे
लोग
अब घूमती है
साँय-साँय करती हवा
दरवाज़ों से घुसती
छतों से निकलती
अनमनी
अकेली
भटकती है
अनंत यात्रा में
बिना पाए
मनुज का स्पर्श।
राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा