भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर संसार में घुसते ही / विनोद कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:40, 27 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: घर संसार में घुसते ही<br /> पहिचान बतानी होती है<br /> उसकी आहट सुन<br /> पत्…)
घर संसार में घुसते ही
पहिचान बतानी होती है
उसकी आहट सुन
पत्नी बच्चे पूछेंगे 'कौन?'
'मैं हूं' वह कहता है
तब दरवाजा खुलता है.
घर उसका शिविर
जहॉं घायल होकर वह लौटता है.
रबर की चप्पल को
छेद कर कोई जूते का खीला उसका तलुआ छेद गया है.
पैर से पट्टी बॉंध सुस्ता कर कुछ खाकर
दूसरे दिन अपने घर का पूरा दरवाजा खोलकर
वह बाहर निकला
अखिल संसार में उसकी आहट हुई
दबे पॉंव नहीं
खॉंसा और कराहा
'कौन?' यह किसी ने नहीं पूछा
सड़क के कुत्ते ने पहिचानकर पूंछ हिलाई
किराने वाला उसे देखकर मुस्कुराया
मुस्कुराया तो वह भी.
एक पान ठेले के सामने
कुछ ज्यादा देर खड़े होकर
उधार पान मॉंगा
और पान खाते हुए
कुछ देर खड़े होकर
फिर कुछ ज्यादा देर खड़े होकर
परास्त हो गया.