त्रिवेणियाँ / संकल्प शर्मा
डेली सोप
बने बिगड़े, मने रूठे, मिले और फिर से बिछड़ गए,
अंजाम मगर हम दोनों का अब तक कुछ भी पता नहीं
किसी ने जैसे रिश्तों पर एक पूरा 'डेली सोप' लिखा हो
अनुराग
तुम्हारा अध-झुकी पलकों से मुझको देखना,
एक एक निगाह से जैसे नया ख़याल बाँधा हो
हर औराक़ मुझे मुकम्मल सी एक किताब लगा
जन्नत
बिन मिटे किसने देखी है जन्नत,
ये दरिया डूब के ही पार हुआ
इसका ‘नेचर’ कुछ कुछ तुमसा है
तमाशा
तेरी आमद की ख़ुशी से दिल संभला भी नहीं ,
तेरे जाने का ग़म कितनी शब् रुलाएगा .
एक तमाशे के बाद ये दूजा तमाशा देख लें .
तमाशाई
“मैं न कहता था हर अदा में बेवफाई है ”,
मुझमें एक शख्स ने बोला ये मुस्कुराते हुए .
हम खुद ही तमाशा ओ तमाशाई बन गए .
याद
ईद का चाँद है के याद तेरी ,
एक नासूर बन गया है मुआ .
रात भर चुभा है सीने में .
जयपुर
कितना फैला हुआ लगता है ‘पहाड़ी’ से शहर ,
कहीं कहीं रस्सियों सी गहरी काली सड़कें .
एक सिरा पकड़ो तो ज़रा ! ‘‘इसकी गिरहें कस दें ’’
दर्जबंदी
धुंधले से हो रहे हैं तेरी यादों के हुजूम ,
ये कौन है जो यूँ दर्जबंदी करता है ?
इन दराजों से अब उम्मीदें भी नहीं दिखतीं .
अश्क़
यूँ हरारत से बर्फ की तरह पिघली है तेरी याद ,
बूँद बूँद आँखों से टपकी है रात भर ,
दफ्तर से आज फिरसे शायद छुट्टी लेनी पड़े .
मरासिम
तुम जिन्हें छोड़ के बेबस सा कर गए थे कभी,
दिसम्बर की हवाओं ने सताए वो मरासिम.
ज़रा सी आंच दिखाओ तो जी उठें शायद.