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स्वप्न / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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संध्या अरुण जलज केसर ले

अब तक मन थी बहलाती,

मुरझा कर कब गिरा तामरस,

उसको खोज कहाँ पाती


क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता

मलिन कालिमा के कर से,

कोकिल की काकली वृथा ही

अब कलियों पर मँडराती।


कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी,

न वह मकरंद रहा,

एक चित्र बस रेखाओं का,

अब उसमें है रंग कहाँ


वह प्रभात का हीनकला शशि-

किरन कहाँ चाँदनी रही,

वह संध्या थी-रवि, शशि,तारा

ये सब कोई नहीं जहाँ।


जहाँ तामरस इंदीवर या

सित शतदल हैं मुरझाये-

अपने नालों पर, वह सरसी

श्रद्धा थी, न मधुप आये,


वह जलधर जिसमें चपला

या श्यामलता का नाम नहीं,

शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत

वह जो हिमचल में जम जाये।


एक मौन वेदना विजन की,

झिल्ली की झनकार नहीं,

जगती अस्पष्ट-उपेक्षा,

एक कसक साकार रही।


हरित-कुंज की छाया भर-थी

वसुधा-आलिगंन करती,

वह छोटी सी विरह-नदी थी

जिसका है अब पार नहीं।


नील गगन में उडती-उडती

विहग-बालिका सी किरनें,

स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी

नींद-सेज पर जा गिरने।


किंतु, विरहिणी के जीवन में

एक घड़ी विश्राम नहीं-

बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब,

लगे जभी तम-घन घिरने।


संध्या नील सरोरूह से जो

श्याम पराग बिखरते थे,

शैल-घाटियों के अंचल को

वो धीरे से भरते थे-


तृण-गुल्मों से रोमांचित नग

सुनते उस दुख की गाथा,

श्रद्धा की सूनी साँसों से

मिल कर जो स्वर भरते थे-


"जीवन में सुख अधिक या कि दुख,

मंदाकिनि कुछ बोलोगी?

नभ में नखत अधिक,

सागर में या बुदबुद हैं गिन दोगी?


प्रतिबिंब हैं तारा तुम में

सिंधु मिलन को जाती हो,

या दोनों प्रतिबिंबित एक के

इस रहस्य को खोलोगी


इस अवकाश-पटी पर

जितने चित्र बिगडते बनते हैं,

उनमें कितने रंग भरे जो

सुरधनु पट से छनते हैं,


किंतु सकल अणु पल में घुल कर

व्यापक नील-शून्यता सा,

जगती का आवरण वेदना का

धूमिल-पट बुनते हैं।


दग्ध-श्वास से आह न निकले

सजल कुहु में आज यहाँ

कितना स्नेह जला कर जलता

ऐसा है लघु-दीप कहाँ?


बुझ न जाय वह साँझ-किरन सी

दीप-शिखा इस कुटिया की,

शलभ समीप नहीं तो अच्छा,

सुखी अकेले जले यहाँ


आज सुनूँ केवल चुप होकर,

कोकिल जो चाहे कह ले,

पर न परागों की वैसी है

चहल-पहल जो थी पहले।


इस पतझड़ की सूनी डाली

और प्रतीक्षा की संध्या,

काकायनि तू हृदय कडा कर

धीरे-धीरे सब सह ले


'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''