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नागरिक कितना अकेला / लीलाधर मंडलोई
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इबादतगाहों से उतरती हैं काली छायाएं और
भरने लगता है धुंए और आग के बवंडरों से सकल व्योम
दुधमुंहे बच्चों को रौंदता गुजरता है कोई हिंसक लठैत
और सनाके से भरी दुनिया दुबक जाती है घरों में
कम है धरती उनके दुखों को
झोंक दिये गये हैं जो इस नामुराद जंग में
मैं नागरिक कितना अकेला इबादतगाह से बाहर