भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिचकते औ' होते भयभीत / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Tusharmj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:52, 26 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त

नहीं, पर, थी वह भेंट, न दान,

अमृत भी मुझको अस्‍वीकार

अगर कुंठित हो मेरा मान;


दृगों में मोती की निधि खोल
चुकाया था मधुकण का मोल,
हलाहल यदि आया है यदि पास
हृदय का लोहू दूँगा तोल!