भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम तो काँटे ही चुनते हैं / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:08, 28 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह= नाव सिन्धु में छोड़ी / ग…)
हम तो काँटे ही चुनते हैं
मिले फूल-फल उन्हें, लोग जिनकी पिकध्वनि सुनते हैं
जैसा अवसर वैसा गायें
श्रोता क्यों ताली न बजायें!
हम तो बस उनकी रचनायें
पढ़कर सिर धुनते है
तिकड़म, दलबंदी, विज्ञापन
दंभ, चाटुकारी, जन-रंजन
धन्य वही कवि इनसे प्रतिक्षण
जो तानें बुनते हैं
हम तो काँटे ही चुनते हैं
मिले फूल-फल उन्हें, लोग जिनकी पिकध्वनि सुनते हैं