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गुब्बारे / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
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बच्चों को लगते जो प्यारे ।
वो कहलाते हैं गुब्बारे ।।
गलियों, बाज़ारों, ठेलों में ।
गुब्बारे बिकते मेलों में ।।
काले, लाल, बैंगनी, पीले ।
कुछ हैं हरे, बसन्ती, नीले ।।
पापा थैली भर कर लाते ।
जन्म-दिवस पर इन्हें सजाते ।।
गलियों, बाजारों, ठेलों में ।
गुब्बारे बिकते मेलों में ।।
फूँक मार कर इन्हें फुलाओ ।
हाथों में ले इन्हें झुलाओ ।।
सजे हुए हैं कुछ दुकान में ।
कुछ उड़ते हैं आसमान में ।।
मोहक छवि लगती है प्यारी ।
गुब्बारों की महिमा न्यारी ।।