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पतंग का खेल / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
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लाल और काले रंग वाली,
मेरी पतंग बड़ी मतवाली ।
मैं जब विद्यालय से आता,
खाना खा झट छत पर जाता ।
पतंग उड़ाना मुझको भाता,
बड़े चाव से पेंच लड़ाता ।
पापा-मम्मी मुझे रोकते,
बात-बात पर मुझे टोकते ।
लेकिन मैं था नही मानता,
इसका नही परिणाम जानता ।
वही हुआ था, जिसका डर था,
अब मैं काँप रहा थर-थर था ।
लेकिन मैं था ऐसा हीरो,
सब विषयों लाया जीरो ।
अब नही खेलूँगा यह खेल,
कभी नही हूँगा मैं फेल ।
आसमान में उड़ने वाली,
जो करती थी सैर निराली ।
मैंने उसे फाड़ डाला है,
छत पर लगा दिया ताला है ।
मित्रों! मेरी बात मान लो,
अपने मन में आज ठान लो ।
पुस्तक लेकर ज्ञान बढ़ाओ ।
थोड़ा-थोड़ा पतंग उड़ाओ ।।